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मध्यप्रदेश

भाजपा को आस, इस बार समाप्त होगा चित्रकूट का वनवास

जबलपुर। मंदाकिनी नदी के तट पर बसा चित्रकूट भगवान राम की कर्म भूमि है। श्रीराम ने यहां वनवास के 11 वर्ष बिताये थे। राम की इस धरा पर भाजपा का वनवास कई वर्षों से जारी है। उत्तर प्रदेश की सीमा से सटी चित्रकूट विधानसभा क्षेत्र कांग्रेस का गढ़ माना जाता है।

इसी सीट पर वर्ष 1985 में पहली बार भाजपा मैदान में आई थी, तब से अब तक सिर्फ एक बार वर्ष 2008 में सफलता मिली। इस सीट पर भाजपा का खाता 23 वर्ष बाद खुला था तब पार्टी के सुरेंद्र सिंह गहरवार ने कांग्रेस नेता प्रेम सिंह को मात्र 722 मतों के अंतर से हराया।

समय का पहिया घूमा और वर्ष 2013 के चुनाव में कांग्रेस के प्रेम सिंह ने ही भाजपा के सुरेंद्र सिंह को 10 हजार मतों के बड़े अंतर से शिकस्त देकर हार का बदला ले लिया। तब से निरंतर चित्रकूट सीट कांग्रेस के कब्जे में है। वर्ष 2018 में कांग्रेस उम्मीदवार नीलांशु चतुर्वेदी ने भाजपा के सुरेंद्र सिंह गहरवार को 10198 वोटों से पराजित किया था।

इससे पहले, वर्ष 2013 में हुए विधानसभा चुनाव में चित्रकूट विधानसभा सीट से कांग्रेस उम्मीदवार प्रेम सिंह ने जीत हासिल की थी इस सीट पर बीजेपी उम्मीदवार सुरेंद्र सिंह गहरवार दूसरे पायदान पर थे। कांग्रेस से तीन बार विधायक रह चुके स्व. प्रेमसिंह के दामाद संजय सिंह इस चुनाव में समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार हैं।

संजय सिंह जिला पंचायत के सदस्य हैं। कांग्रेस का घर रही इस सीट के लिए पार्टी ने मौजूदा विधायक नीलांशु चतुर्वेदी पर लगातार तीसरी बार भरोसा जताया है। वहीं तमाम विरोधों के बाद भी भाजपा के पूर्व विधायक सुरेंद्र सिंह गहरवार एक बार फिर से मैदान में हैं।

टिकट नहीं मिलने से नाराज भाजपा की प्रदेश कार्यसमिति के सदस्य रहे सुभाष शर्मा ने बसपा के भरोसे ताल ठोंक रखी है। सुभाष शर्मा के मैदान में आने से जहां भाजपा- कांग्रेस दोनों भौचक हैं। वहीं कांग्रेस से खफा- सपा के रणनीतिकारों ने कांग्रेस की किलेबंदी पर सेंध मारने की कोशिश की है।

बसपा- एक कामयाबी, फिर भी थर्ड फ्रंट

इस सीट पर बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के प्रत्याशी ने पहली बार 1990 में किस्मत आजमायी थी। मगर सफलता 3 वर्ष बाद 1993 के मध्यावधि चुनाव में मिली। तब बसपा के गणेश बारी ने पूर्व मंत्री और जद के प्रत्याशी रामानंद सिंह को पराजित कर इसी सीट पर बसपा का खाता खोला था। इसके बाद अब तक सफलता तो नहीं मिली, लेकिन वोट बैंक के लिहाज से बसपा निरंतर थर्ड फ्रंट की भूमिका में है।

नाकामियों के बाद भी बसपा प्रायः निर्णायक भूमिका में रही है। इसने कभी भाजपा तो कभी कांग्रेस के निर्णायक समीकरण बिगाड़े। 2003 में बसपा के बद्री पटेल ने 24 हजार से ज्यादा वोट लिए थे, तब सांसद रहते भाजपा के रामानंद सिंह चौथे नंबर पर चले गए थे। बाजी कांग्रेस के प्रेम सिंह के हाथ लगी थी।

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