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बुद्ध पूर्णिमा विशेष बुद्धत्व तक की विकास-यात्रा!! श्री आशुतोष महाराज जी (संस्थापक एवं संचालक, दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान)

'बुद्धत्व’ मंज़िल है उस सफर की, जो पूर्ण सत्य को जानने की जिज्ञासा से शुरु होती है। सिद्धार्थ का बुद्ध तक का सफर भी हमें इसी मंज़िल की ओर प्रेरित करता है। यह एक सनातन प्रक्रिया है- साधक से साध्य में लीन होने की! सिद्धार्थ गौतम परिव्राजक बन गए। तन पर चीवर धारण कर निकल पड़े। अपनी राजधानी कपिलवस्तु के ऐश्वर्यों को ठुकरा कर आगे बढ़ गए। पथिक है, तो पथ भी होना चाहिए। साधक के पास साधना का मार्ग भी होना ज़रूरी है। सिद्धार्थ भी अपने पथ की खोज में निकल पड़े। साधना की अनेक परम्पराओं पर उन्होंने प्रयोग किया। तपस्या की प्रचलित पद्धतियों का परीक्षण किया। उग्र तप किया। आत्म-पीड़न के सभी साधन अपनाए। फिर एक दिन... सिद्धार्थ गौतम के भीतर तीव्र मनोमंथन चल पड़ा। विवेक की नवीन तरंगें मन-मस्तिष्क को झंझोड़ गईं- ‘यह क्या स्थिति बना ली है मैंने अपनी? तप तो छोड़ो, अब तो हिलना-डुलना भी असंभव हो गया है। यह आत्मविजय का मार्ग कैसे हो सकता है, जब इसके द्वारा देह-विजय तक संभव नहीं! मेरे तप का ध्येय तो 'दुःखों से निवृत्ति' का उपाय खोजना था। परन्तु मैं तो स्वयं ही दुःख-क्लेशों का घर बन कर रह गया हूँ। देह-बल क्षीण होता जा रहा है। मेरा मन भूख-प्यास और थकावट के मारे कहीं भी एकाग्र नहीं हो पा रहा, फिर नवीन-ज्ञान का प्रकाश इसमें कैसे उतरेगा?... मैंने देह को तो जैसे-तैसे साध लिया, लेकिन मेरा मन और चित्त! इनका क्या? ये तो जैसे के तैसे हैं, फिर उस महान ज्ञान और अवस्था को कैसे पाऊँ, जो मन और चित्त को शांत करने पर ही प्राप्त होती है? नहीं!...नहीं... यह आत्म-पीड़न का मार्ग है, आत्म-ज्ञान का नहीं! दुःखों का आमंत्रण है, दुःखों का समाधान नहीं!... मैं इस प्रचण्ड हठयोग को अभी तिलांजलि देता हूँ।’ उस समय सिद्धार्थ गौतम न्यग्रोध वृक्ष के तले बैठे थे। संयोग से, एक महान महिला विभूति वहाँ पहुँची। वे सेनानी नाम के गृहपति की कन्या सुजाता थी। वह न्यग्रोध वृक्ष के पूजन हेतु आई थी और अपने साथ स्वर्ण-पात्र में खीर भी लाई थी। ज्यों ही सुजाता ने गौतम को देखा, वह दिव्य प्रेरणा से अभिभूत हो उठी। उसने खीर से भरा स्वर्ण पात्र सिद्धार्थ को अर्पित किया और उनसे भोग लगाने की प्रार्थना की। अनुभवी कहते हैं, सुजाता एक सिद्ध आत्मज्ञानी थी। हठयोग से अशक्त हुए गौतम को ज्ञान-मार्ग पर प्रशस्त करने आई थी। खीर अर्पित करते हुए उसने गौतम से कहा था- ‘वीणा के तारों को इतना ढीला भी मत छोड़ो कि उसमें से स्वर ही न प्रस्फुटित हों और इतना कसो भी मत कि वे तारें टूट ही जाएँ। अति के दोनों मार्ग अनुकरणीय नहीं हैं। मध्यम मार्ग श्रेष्ठ मार्ग है।’ सुजाता ने सिद्धार्थ गौतम को तत्त्वज्ञान भी प्रदान किया। इस तरह सिद्धार्थ की खोज पूर्ण हुई। सिद्धार्थ सुपतिट्ठ नामक नदी के घाट पर पहुँचे। वर्षों बाद उन्होंने मल-मल कर स्नान किया। फिर खीर ग्रहण की। उसी रात उन्हें पाँच दिव्य अनुभूतियाँ प्राप्त हुईं। उन समस्त अनुभूतियों का केवल एक ही संकेत था कि उन्हें 'बोधि' (enlightenment) प्राप्त होकर रहेगी। वे दृढ़व्रती होकर राजपथ से होते हुए गया पहुँच गए। गया में उन्होंने पीपल का एक विशाल वृक्ष देखा और उसके तले पद्मासन लगाकर बैठ गए। नेत्र मूँदने से पहले गौतम ने एक महासंकल्प लिया, जो युगांतरकारी था, जो युग-युगीन साधकों के लिए प्रेरणा के स्वर्णिम अक्षर हैं। वह महासंकल्प था- 'मैं 'बोधि' पाए बिना इस आसन से नहीं हिलूँगा। पूर्णता को प्राप्त किए बिना मैं अपनी साधना की श्रृंखला को नहीं तोडूँगा। यह मेरा अटल संकल्प है।' चार सप्ताह तक गौतम प्रगाढ़ ध्यान में लीन रहे। अंततः तम विलीन हुआ। अविद्या नष्ट हुई। ज्ञान का भुवन भास्कर अंतर्जगत में दैदीप्यमान हो उठा। सिद्धार्थ 'बुद्ध' (The Enlightened) हो गए। इसी के साथ उनका अनुसंधान भी पूरा हुआ। ‘दुःख क्यों होता है?’ ‘दुःख कैसे दूर किया जाए?’- अंतर्जगत की गहन गहराइयों में गौतम ने इन प्रश्नों का समाधान खोज लिया। उनका यही शोध समाज के लिए ‘धम्म’ (धर्म) पथ बनकर उजागर हुआ। दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान की ओर से सभी पाठकों को बुद्ध पूर्णिमा की हार्दिक शुभकामनाएँ।

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