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पूज्य श्री सद्गुरुदेव आशीषवचनम् 🚩।। श्री: कृपा ।। 🚩 🌿
पूज्यश्री सद्गुरुदेव संसार में रूप, गुण, कर्म आदि की भिन्नताएँ केवल अज्ञान के कारण ही हैं। ज्ञान प्राप्ति के अनन्तर साधक के अन्तःकरण से द्वैत भाव का अवसान हो जाता है और सर्वत्र एक ही सत्ता अनुभूत होने लगती है। अत: सर्वव्यापक उस एक ही ब्रह्म की सत्यानुभूति हेतु प्रयत्नशील रहें ..! दु:ख का मूल कारण है - अज्ञानता। मोह का अर्थ अज्ञान से है। हमारे आपके जीवन में दु:ख का मूल कारण अज्ञान ही है। कभी भी दु:खों का अंत होगा, उसके पीछे ज्ञान ही कारण बनेगा। सत्संग से मनुष्य ज्ञान को उपलब्ध हो जाता है। ज्ञान होने के बाद जीवन में चाहें जो परिस्थितियाँ हों, लेकिन व्यक्ति के दु:खों का अंत हो जाता है। दु:खों की निवृत्ति के तीन ही साधन हैं - ज्ञान, भक्ति और वैराग्य। संसार में क्या सत्य है? क्या असत्य है? इसका बोध होने को ही 'ज्ञान' कहते हैं। जो असत्य है, उससे दूर हो जाने को ही 'वैराग्य' कहते हैं। जो सत्य है, उससे जुड़ना, इसी को 'भक्ति' कहते हैं। सत्य 'परमात्मा' है, जो तीनों काल में सत्य है। सत् का कभी अभाव नहीं है और असत्य की कभी सत्ता नहीं है। असत्य में हम मन लगाए रहेंगे, तो दु:खी रहेंगे। संसार में रहते हुए जब परमात्मा का हम चिन्तन करेंगे और उनको उपलब्ध होना चाहेंगे तो हम सुखी हो जायेंगे। हम कर्म क्या कर रहे हैं, इससे महत्वपूर्ण बात यह है कि हम किस 'भावना' से कर्म कर रहे हैं। यदि 'सर्व जन हिताय-सर्व जन सुखाय' की भावना से कर्म कर रहे हैं, तो यह सात्विक कर्म की श्रेणी में माना जाता है। ऐसे कर्म का फल है - चिरस्थायी शान्ति व परमानन्द की ईश्वर की प्राप्ति। जब केवल अपना दिखावा करते हैं, अपने मान-सम्मान के लिए कर्म करते हैं, तो राजस श्रेणी में वह कर्म चला जाता है। उसका फल है- थोड़ी अशान्ति, थोड़ी परेशानी। लेकिन जब किसी को नुकसान पहुँचाने या नीचा दिखाने की भावना से कर्म करते हैं, तो वह कर्म तामस कर्म की श्रेणी में चला जाता है। उसका परिणाम भयानक अशान्ति और कष्ट है। इस दृष्टि से देखा जाये तो दक्ष महाराज ने जो यज्ञ किया, वह भगवान शंकर के अपमान की भावना से किया। इस कारण उनका यज्ञ तामस कर्म की श्रेणी में चला गया। इसीलिए दक्ष महाराज को असहनीय दु:ख व हानि उठानी पड़ी ...। 🌿 ज्ञान की महत्वता प्रतिक्षण है। ज्ञान की प्राप्ति के लिए हमेशा पुरुषार्थ करना चाहिए। ज्ञान ही मनुष्य की वास्तविक शक्ति है। संसार की हर वस्तु नष्ट हो जाती है। धन भी आज है, कल नहीं। केवल ज्ञान ही ऐसा है जो मनुष्य का साथ नहीं छोड़ता है। ज्ञान की आराधना का कोई भी अवसर नहीं छोड़ना चाहिए। मनुष्य परमात्मा की अद्भुत रचना है। मनुष्य जीवन अनमोल है। हर योनियों में श्रेष्ठ है - मानव योनि । कितने शुभ कर्मों के उदय से व्यक्ति इस मानव शरीर को पाता है, इसे लापरवाही व नासमझी से व्यतीत करना मूर्खता की निशानी है। मानव मस्तिष्क ईश्वर की ही देन है। इसका सही उपयोग व विकास करना हमारा कर्तव्य है। आज हमने इसे अनावश्यक नकारात्मक विचारों से भर दिया है। बालक हो या वृद्ध हर कोई अनावश्यक नकारात्मक विचारों से अपने आप को घिरा हुआ पाता है। मस्तिष्क का शोधन कर इसमें ज्ञान रूपी फसल को बोने से व्यक्ति के जीवन में विकास आता है। ज्ञान की प्राप्ति तो हर व्यक्ति करना चाहता है, किन्तु जब तक पात्र शुद्ध व स्वच्छ ना हो उस में डलने वाला हर कण व्यर्थ हो जाता है। सर्वप्रथम उच्च ज्ञान के लिए हमें स्वयं का शोधन करना आवश्यक है। ज्ञान प्राप्ति के लिए मन में श्रद्धा होना आवश्यक है। अपने श्रद्धा भाव से हम गुरु के पास जो गुरुत्व है, साधु के पास जो साधुत्व है, संन्यासी के पास जो संन्यास तत्व है, गंगा के पास जो गंगत्व है, देवताओं के पास जो देवत्व है और भगवान के पास जो भगवत्ता है, उसके स्वाभाविक रूप से अधिकारी बन जाते हैं। इस प्रकार श्रद्धावान व्यक्ति स्वाभाविक रूप से योग्यता रखता है, चूँकि उसके पास तर्क नहीं होते हैं ।
