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विश्व ध्यान दिवस विशेष: ‘आत्मा’ रूपी ‘ध्येय’ में मन का स्थित हो जाना ही ध्यान है।
विश्व ध्यान दिवस विशेष: वास्तविक 'ध्यान-पद्धति' क्या है, जानिए संत महापुरुषों के अनुसार विश्व ध्यान दिवस विशेष: ईश्वर की ध्यान साधना आंतरिक आनंद प्रदान करने की एक पद्धति है गुरुदेव श्री आशुतोष महाराज जी (संस्थापक एवं संचालक, दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान) दौड़-भाग, आपाधापी से पूर्ण ज़िन्दगी! हर पल में प्रतिस्पर्धा और प्रतियोगिता! जीवन के हर पक्ष में गति! कर्म में गति! मन के विचारों में गति! जीवन की इस गति के पीछे कोई तो ऐसी स्थिर सत्ता होनी चाहिए, जो हमारे अस्तित्व का आधार भी हो। कारण कि केवल गति 'अस्थिरता' को जन्म देती है। अस्थिरता से तनाव और व्याकुलता की स्थिति बनती है। इस विकलता से उबरने का एक ही उपाय है। वह यह कि हम अपने अस्तित्व के उस आधारभूत स्थिर-बिंदु को खोजें और उससे जुड़ने की कला सीख लें। हमारे आर्य ग्रंथों में स्थिर-जीवन की इस पद्धति को कहा गया- 'ध्यान'। आज की प्रचलित भाषा में इसे कहा जाता है- 'Meditation' (यद्यपि 'मेडिटेशन' शब्द 'ध्यान' की गरिमा को पूर्णतः सम्बोधित नहीं करता)। आज तनावमुक्त शांति पाने के लिए अर्थात् उस स्थिर बिंदु की खोज में लोग अमूमन तौर पर विभिन्न ध्यान-केंद्रों पर जा रहे है। विभिन्न तरह की अर्थात् ध्यान पद्धतियों पर प्रयोग कर रहे हैं। आज की कुछ प्रचलित मेडिटेशन तकनीक- 'ध्यान' के जिस उच्चतम उद्देश्य को हम लेकर चल रहे हैं अर्थात् उस परम स्थिर-बिंदु से संयोग- क्या इनके द्वारा यह लक्ष्य सध पाता है? थोड़ा भी चिंतन करने पर हम पाएँगे कि इनमें से अनेक ध्यान-पद्धतियाँ पदार्थ या क्रिया विषयक हैं। किसी पदार्थ, शब्द या क्रिया पर एकाग्रता - ‘ध्यान’ नहीं है! इस वर्ग में वे सारी ध्यान-पद्धतियाँ आती हैं, जो व्यक्ति को किसी वस्तुविशेष या कोई शाब्दिक मंत्र या कोई क्रिया/नर्तन मुद्रा पर फोकस करना सिखाती हैं। इन सब विधियों का प्रभाव जल पर खींची रेखा की तरह क्षणिक और सतही होता है। ये सभी ध्यान की विधियाँ इन्द्रियों की सहायता से क्रियान्वित की जाती हैं। हमारी इन्द्रियाँ जिस शक्ति से संचालित हैं, वे पलट कर उसी का साक्षात्कार कैसे करें? उसका साक्षात्कार किस साधन, किस इन्द्रिय से करें, जिसके द्वारा हमारी ये सब इन्द्रियाँ ब्रह्माण्ड का साक्षात्कार करती है? किसी कल्पना पर एकाग्रता 'ध्यान' नहीं है! ठीक यही गणित या उन ध्यान-पद्धतियों के लिए बैठता है, जो कल्पना की उड़ान पर टिकी हैं। मनोविज्ञान कहता है- कल्पना मन की क्रिया है। और मन के सम्बंध में केनोपनिषदीय ऋषिवर का यही कहना है- जिसका मन से मनन या कल्पना नहीं की जा सकती, पर जिसके द्वारा मन मनन (कल्पना) करता है, वही एक परम-स्थिर बिंदु है। कहने का आशय कि वह कल्पनातीत है। इसलिए कल्पनाधारित साधना के साधन भी उसकी थाह नहीं पा सकते। श्वास-प्रश्वास क्रियाएँ 'ध्यान' नहीं हैं! यदि हम गौर करें, तो पाएँगे कि आजकल की सर्वाधिक प्रचलित ध्यान-तकनीक विश्व ध्यान दिवस विशेष: 'आत्मा' रूपी 'ध्येय' में मन का स्थित हो जाना ही ध्यान है (श्वास-प्रश्वास क्रियाओं) पर आधारित हैं। परंतु श्वासों का नियंत्रण या शोधन ध्यान नहीं, ‘प्राणायाम’ कहलाता है। 'प्राणायाम' अर्थात् 'प्राणों का आयाम'- प्राण संबंधित व्यायाम। अतः जिन श्वास-प्रश्वास क्रियाओं को हम 'ध्यान-पद्धति' मान बैठे हैं, वे केवल विशेष प्राणायाम की विधियाँ ही हैं; और कुछ नहीं! यही कारण है कि इन उक्त ध्यान-क्रियाओं के साधक उस परम स्थिर-बिंदु को खोजने में असफल रह जाते है। केवल थोड़ी क्षणिक स्थिरता या मन बहलाव को ही ध्यान-फल मानकर संतुष्ट हो जाते हैं। हमारे समस्त शास्त्र-ग्रंथों के अनुसार इस सकल जगत में साधने योग्य एकमात्र ध्येय वह चिरस्थायी सत्ता है, जो हर मनुष्य के भीतर स्थित 'प्रकाश स्वरूप आत्मा' है। यही वह स्थिर परम-बिंदु है, जो स्थायी और नित्य आनंद का केंद्र है। 'आत्मा' रूपी 'ध्येय' में मन का स्थित हो जाना ही ध्यान है। अतः हमें एक ऐसे अनुभवी डॉक्टर अर्थात् पूर्ण सद्गुरु की दीक्षा खोजनी होगी, जो ध्यान-साधना की सटीक और उपयुक्त विद्या प्रदान करने का सामर्थ्य रखते हों।
