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उत्तराखंड के जोशी मठ पर छाया संकट।

भारत में हिमालय की गोद में बसे जोशीमठ की जान को खतरा है। जोशीमठ क्या पूरे उत्तराखंड की जान खतरे में है। जोशीमठ की जान बचाने के लिए वैज्ञानिक और सत्ता के मठाधीश पूरी ताकत से जुटे हुए हैं। क्योंकि जोशीमठ का खतरा भगवान का नहीं इनसान का पैदा किया गया है। सरकार ने जोशीमठ के डेढ़ किलोमीटर भू-धंसाव प्रभावित क्षेत्र को आपदाग्रस्त घोषित किया गया है। भारत में जोशीमठ का वजूद सदियों पुराना है। जोशीमठ का अपना इतिहास है, अतीत है, किस्से हैं, कहानियां हैं। जोशीमठ की जान को पैदा हुए खतरे से पहले हमें जोशीमठ को जान लेना चाहिए। कहने को तो एक क्षत्रिय सेनापति कंटुरा वासुदेव कत्यूरी ने गढ़वाल की उत्तरी सीमा पर अपना शासन स्थापित किया था और जोशीमठ को अपनी राजधानी बनाया था। जोशीमठ 7 से 11सदी तक सत्ता का केंद्र रहा। कालांतर में जोशीमठ संतों का केंद्र बन गया। धारणा और तथ्यों के मुताबिक जोशीमठ को 8 वीं सदी में आदि शंकराचार्य ने स्थापित किया था। उन्होंने यहां एक शहतूत के पेड़ के नीचे तप किया और यहीं उन्हें ज्योति या ज्ञान की प्राप्ति हुई। यहीं उन्होंने शंकर भाष्य की रचना की जो सनातन धर्म के महत्त्वपूर्ण ग्रंथों में से एक है। जोशीमठ में लगातार हो रहे भू-धंसाव ने स्थानीय जनता, प्रदेश सरकार और केंद्र सरकार की चिंता बढ़ा दी है। बढते खतरे और मामले के उच्चतम न्यायालय में पहुंचने के बाद प्रधानमंत्री कार्यालय ने एक उच्च स्तरीय बैठक बुलाई है। मुख्यमंत्री धामी ने प्रधानमंत्री मोदी को फोन पर जोशीमठ के ताजा हालात से अवगत कराया। सीएम धामी ने बताया कि प्रधानमंत्री ने जोशीमठ के संदर्भ में दूरभाष के माध्यम से वार्ता कर प्रभावित नगरवासियों की सुरक्षा व पुनर्वास के लिए उठाए गए कदमों एवं समस्या के समाधान के लिए तात्कालिक और दीर्घकालिक कार्य योजना की प्रगति के विषय में जानकारी ली। जोशीमठ के वजूद को खतरा अचानक पैदा नहीं हुआ।खतरा पुराना है लेकिन उसकी अनदेखी की गई।अब जब पानी सिर के ऊपर हो गया है तो पूरी सरकारी मशीनरी को सक्रिय होना पड़ा है। है। हर कोई मानता है कि स्थिति गंभीर है और तेजी से काम करने की जरूरत है। यहां एक दो नहीं सैकड़ों मकान खतरे में है। इन्हें चिन्हित कर लाल निशान लगाए जा चुके हैं। दरअसल जोशीमठ के नीचे से एक लंबी सुरंग बनाई गई है.यही सुरंग मोटे तौर पर समस्या क जड़ है। यह सुरंग वहां से शुरू होती है, जहां पिछले साल ऋषिगंगा नदी ने तबाही मचाई थी. यह सुरंग वहां से शुरू होकर हेलंग तक जाती है. इस प्रोजेक्ट के जरिए तपोवन में पानी स्टोर होगा और सुरंग के जरिए हेलंग तक पहुंचेगा. यह सुरंग करीब एक किलोमीटर की निचाई में बनाई गई है. इस सुरंग पर जमीन का पूरा दबाव है. साल 2009 में हेलंग से करीब तीन किलोमीटर की दूरी पर इस सुरंग में एक टनल बोरिंग मशीन फंस गई थी. इस मशीन ने जमीन के नीचे एक पानी के स्रोत को पंचर कर दिया. इसकी वजह से करीब एक महीने तक पानी रिसता रहा. यह भी कहा जा रहा है कि जोशीमठ में दरारों की एक वजह यह भी हो सकता है. इसके अलावा यह भी कहा जा रहा कि पिछले साल तपोवन में आई त्रासदी में सुरंग में जो पानी घुसा था, कहीं वो ही पानी तो अब जोशीमठ में नहीं आ रहा है उत्तराखंड पिछले दशक में एक भीषण त्रासदी का भुक्तभोगी है।और अब किसी भी नयी त्रासदी का सामना करने की स्थिति में नहीं है। जोशीमठ संकट को लेकर जितने मुंह उतनी बातें हैं। राजनीति है। आरोप - प्रत्यारोप हैं, लेकिन संकट से निपटने के लिए सामूहिक संकल्प का अभाव है। फिलहाल नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हाइड्रोलॉजी को जोशीमठ में रिस रहे पानी की जांच करने का जिम्मा दिया गया है। वह पानी के मूल स्रोत का पता लगाएगा।जोशीमठ की वहन क्षमता का तकनीकी अध्ययन होगा। आईआईटी रुड़की की टीम पता लगाएगी कि वास्तव में नगर की वहन क्षमता कितनी होनी चाहिए? अब जोशीमठ की मिट्टी की पकड़, भूक्षरण को जानने के लिए विस्तृत भू तकनीकी जांच होगी। जरूरत पड़ने पर नींव की रेट्रोफिटिंग का भी अध्ययन होगा। संकट की जड़ तक पहुंचने के लिए इलाके की जियो फिजिकल स्टडी का नेचर जानना जरूरी है। सवाल केवल जोशीमठ का नहीं बल्कि देश के पूरे पहाड़ी अंचल का है।हम पहाड़ों के मूल स्वभाव से तालमेल बैठाने के बजाय अपनी सुविधा के लिए पहाड़ों से खिलवाड़ कर रहे हैं। इसके अपराधी सरकार, उद्योगपति, पूंजीपति, बहुराष्ट्रीय कंपनियां सब हैं।इनका हाथ पकड़ने वाला कोई नहीं है। कोई सुंदर लाल बहुगुणा नहीं है।आज यह त्रासदी उत्तराखंड की है कल हिमाचल की होगी,न रुके, न सम्हले तो दूसरे पहाड़ी हिस्सों की होगी। उम्मीद करना चाहिए कि तमाम स्वार्थों से ऊपर उठकर सरकार इस आपदा का मुकाबला करने में सफल होगी।

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